"रुक-रुक,यहीं रोक ले आज" मैंने नसरू को कंधे पर थपकी देते हुये रुकने को कहा है।
"क्यों? आज यहां क्या है छोटे? तेरा कमरा तो क्रासिंग के पास है न!" बाइक को रोकते हुये नसरू ने जवाब तलब किया है।
"हां.. पर आज थोड़ी दूर पैदल चलने का मन है,तू निकल! कल मिलते हैं!"
"जैसी तेरी मर्ज़ी! पर कोई गड़बड़ न करना छोटे! पता चले मियाँ कल सुबह कोचिंग से पहले अख़बार की सुर्खियों में मिलें" दोस्त मज़े लेने से नहीं चूकते।
"भरोसा रखो! तेरा छोटे इतना कमज़र्फ नहीं"
हल्की मुस्कान के साथ उसने बाइक मोड़ ली,"कल जल्दी उठना"कहते हुये छू मंतर हो गया।
आठ नंबर चौराहे के इस पार से उस पार जाना है। सुबह के करीब दस बज रहें हैं। आंख खुलने के बाद दुनिया जिस घुड़दौड़ में शामिल हो जाती है वहीं मैं देख रहा हूँ यहां भी। अभी-अभी जैसे ही कदम बढ़ाया था कि मेरे दाहिनी ओर से आती हुई कार के ड्राइवर को ज़ोर की ब्रेक मारनी पड़ी थी,नतीजतन मैं ठिठक गया हूं, मुझे कोई जल्दी नहीं है,ट्रैफिक कम होगा तब निकलूंगा, क्योंकि मुझे ये भी पता है कि मेरे कमरे के पार्टनर ने आज मेरा दोपहर का दाल-चावल तैयार कर रखा होगा,मैनें कोचिंग से निकलते ही उसे फोन करके ऐसा करने को कहा था और उसे यह भी बताया कि हो सकता है मुझे पहुंचने में देर हो जाये क्योंकि मैं आज पैदल आने वाला हूं।
गर्मियों के दिनों में सुबह और शाम दोनों ही अपनी सीरत के लिए मशहूर हैं,आसमान साफ है,सफेद बादल इधर उधर टहलते दिख रहे हैं। बायें हाँथ की कलाई पर पिताजी की दी हुई पुरानी एच एम टी घड़ी को एक टक देखकर पता चला कि पिछले पंद्रह मिनट से मैं चौराहे के इसी ओर खड़ा हूँ,ट्रैफिक कम है,लेकिन है ज़रूर,लखनऊ की छोटी सड़कें यहां बड़ी सड़कों की अपेक्षा कुछ ज्यादा प्रयोग में लायी जाती हैं। इस बार मैंने अपने दोनों हांथों से ट्रैफिक से रहम मांगते हुये चौराहे को पार कर लिया है।ये लखनऊ है,यहां तहज़ीब के साथ नवाबी भी है,इसीलिये मुझे यही सही लगा।
चौराहे से क्रासिंग की ओर जाने वाली सड़क के दाहिनीं ओर पुलिस बूथ है,जो अक्सर खाली देखा जा सकता है।उसी बूथ के ठीक सामने,मतलब की रोड के बायीं ओर बड़े गेट वाला मकान है,मकान के ठीक सामने उसकी चारदीवारी के आस-पास बकैने(नीम की तरह का एक पेड़,जिसकी पत्तियां भी नीम की ही तरह होती हैं) के तीन पेंड है। मकान के गेट से ठीक दायीं ओर लगे पेंड के नीचे एक चबूतरा बनवाया गया है,जिसपर श्री हनुमान जी की मूर्ति रखी गयी है।
मेरा सिर अमूमन उस मूर्ति के समक्ष अभिवादन हेतु झुक जाता है।एक पुजारी जी इस मूर्ति की देखभाल करते हैं, अबतक जहां सिर्फ़ मूर्ति रखी हुई थी आज वहां उसके चारों ओर टीन शेड का घेरा है। मैनें अभिवादन से मूर्ति के आगे शीश झुकाकर प्रार्थना की मुद्रा में आंखें बंद कर ली हैं,ठीक वैसे ही जैसे कि मुझे शिशु मंदिर में संस्कार दिया गया था।
"भगवान भला करे!"पुजारी जी मेरे माथे पर लाल बंदन का टीका लगाने के बाद आशीर्वाद दे रहे हैं
"औऱ पुजारी जी! कैसे हैं?"
उनके बिछाये हुये टाट के बिस्तरे पर बैठते हुये मैनें यूँ ही पूछ लिया है,ताकि मुझे थोड़ी देर और हवा, मौसम का आनन्द प्राप्त हो। शहर के शोर-शराबे का भी यहां कोई असर नहीं है।
"सब कुशल है भैया! जब तक जी करे बैठो"
पुजारी जी पके चावल निकले। मैं जो सोंच रहा था वो समझ गये। अपने जूते और जुराफों को इतनी दूर उतार कर आया हूँ कि यहां तक उनकी बदबू आकर माहौल न खराब करे। पैर भी जम के धुले थे दर्शन करने से पहले।
"टीन शेड से अब बढ़िया हो गयी मठिया पुजारी जी!"
"हां..वकील साहब का घर बन रहा है,सो उन्होंने ही इसे भी सही करा दिया"
"घर तो बना बनाया है वकील साब का फिर?"
"अरे वो पास के प्लाट में बन रहा है उधर, वो देखो,अबके बड़े बेटे की शादी है,अब बहू और सास एक मकान में नहीं रहते न भैया!"
पुजारी जी मुस्करा रहे हैं। उनकी मुस्कान,इतनी उम्र में देखा गया पहला सबसे श्रेष्ठ व्यंग्य है। पीढ़ियों के बदलाव में आ रहे बिखराव और हम लग्ज़री होते लोगों पर पुजारी जी की मुस्कान एक चेतावनी है। चिड़िया अंडे से बाहर आयेगी, मां पाल पोस कर बड़ा कर देगी,फिर चिड़िया अलग घोंसला बना लेगी और वो माँ को भूल जायेगी, पर माँ उसे हमेशा यादों के फ्रेम में सज़ा रखेगी शायद।
हवा तेज़ हो रही है,उसके अपने रंग है,गर्मियों की दोपहर वो बिगड़ैल सहेली है जिसका असर बेचारी हवा पर यूँ पड़ता है कि वो धूप से भी ज्यादा तेज चुभती है। संगत का असर पड़ता है,सब कहते थे,महसूस अब हुआ है। हवा अपनी बिगड़ैल सहेली के साथ आती है,पर उसका असर पेड़ों की छांव के साथ मिलकर और शीतल हो जाता है,छाँव, एक अच्छी सहेली है।
"पाँय लागी पुजारी जी!"
एक अधेड़ आ रहें हैं। दो बच्चे उनके इधर-उधर सीमेंट की बोरियां समेटे चले आ रहे हैं।
"भगवान भला करे गोपी भाई! आओ बैठो..!"
पुजारी जी ने उनका अभिवादन करते हुये बैठने को कहा। मैं अभी तक हिला नहीं हूं और जिस तरह का माहौल है,लगता नहीं कि अब मैं हिल पाऊँगा।
"चलो..अपनी-अपनी जगह बैठ जाओ कल के जैसे..और आज भी मज़दूरी उतनी ही मिलेगी,लेकिन सुनो गुड्डा!अगर काम गुड़िया के बराबर होगा,तो बराबर पैसा मिलेगा वरना आज कटौती होगी,समझे!"
अधेड़ ने दोनों बच्चों को उंगली दिखाते हुये कहा,मगर ये कहते हुये होंठों पर मुस्कान थी,यक़ीन करो सच में..हां वो मुस्करा रहे थे अभी..
"बाबा! गुड़िया की मदद मैंने ही की थी कल,इसीलिये इसके पास मुझसे ज्यादा धागे थे,ये छोटी है न बाबा! मम्मी बोलती हैं कि मुझे इसका ख़याल रखना चाहिये,अब आप बताइये मेरी क्या गलती?"
"चलो ठीक है,अब काम भी करो बतकट्ट!"
पुजारी जी,अधेड़ के साथ उसकी मुस्कान में मिलकर आनंदित हो रहे हैं। मैं इसमें उलझा हूँ कि आखिर ये बच्चे क्या काम करते होंगे भला? और इस पिद्दी ने अपनी छोटी बहन का खयाल कैसे रखा होगा? ये अधेड़ इन्हें कितनी मज़दूरी देता होगा? अब उसी में से कटौती भी कितनी करेगा भला?
मुझसे तीन फ़ीट की दूरी पर अधेड़ के साथ उसके दायीं ओर दोनों गुड्डा और गुड़िया सीमेंट की ख़ाली बोरियां बिछाकर बैठ गए हैं। अधेड़ ने बोरियों के सिरे काटने शुरू किये और दो-दो बोरियाँ दोनों को दे दी है। गुड्डा-गुड़िया दोनों अपना काम करने लग गये। वे छोटी-छोटी उंगलियों से बोरी के धागे अलग कर रहे हैं। अधेड़ ने एक चार नोक वाला लकड़ी का यंत्र निकाला है जिसके ऊपर की ओर एक हत्था है और हत्थे में छोटी सी लोहे की कील लगी हुई है। अधेड़ ,कुछ धागों को उसमें फँसाकर घुमाने लगा है।
मैं उन पिद्दियों की कार्य कुशलता देखकर हैरान हूं,इतनी छोटी सी उम्र में इन्हें तराशा जा रहा है,गुड़िया,गुड्डे से दो धागे ज्यादा खींच लेती है तो उछल पड़ती है,गुड़िया कोई धागा खींच नहीं पाती तो गुड्डा उसकी मदद कर देता है।हवा आकर गुड़िया के बाल बिगाड़ रही है,गुड्डा उन्हें बार-बार सही करने को कहता है। अचानक गुड़िया की आंखों में तेज हवा से धूल भर गयी गुड्डे ने तुरंत फूंक कर सही कर दिया और अब दोनों एक-दूसरे की ओर कुछ इस तरह मुंह करके बैठे हैं कि आने वाली हवा अब गुड्डे की पीठ तक ही पहुंच रही है। गुड़िया,गुड्डे की ओट में बैठी है। गुड्डा,एक जिम्मेदार भाई है गुड़िया,एक प्यारी बहन।
मैं इन पिद्दियों में खुश रहने की क्षमता, कार्यकुशलता, एकाग्रता, बचपना, और बहुत कुछ देख रहा हूँ। ये,धागों के साथ खेलते हुये वीडियो गेम पर जीने वाली एक नस्ल की नाक खींच रहे हैं। मेरा मन अब नहीं रुक रहा,..
"बहुत प्यारे बच्चे हैं पुजारी जी! ये यहां कैसे? पहले तो कभी नहीं देखा"
पुजारी जी मुझे बहुत देर बाद अचानक सवाल करता देख मेरी ओर मुड़ गये हैं।उन्हें शायद पता था कि मैं यह ज़रूर पूंछने वाला हूँ
"ये यहां पहली बार आये हैं,तुम्हे भला कैसे नज़र आते? ये गोपी भाई के बेटे के बच्चे हैं। वकील साब के गांव से हैं ये लोग
पूरा परिवार है साथ में।"
"मतलब टहलने आये हैं यहां..अब समझा मैं!"
मैं हल्की मुस्कराहट का मज़ा लेते हुये बोला कि अधेड़ मुस्करा कर बोल दिया है..
"तुम कुछ नहीं समझे भैया!..."
मैं फिर हड़बड़ा गया हूँ,और अब मैं जानने को उत्सुक भी हूँ..
"फिर..? आप सब टहलने नहीं आये"
"नहीं"
"तो???"
अधेड़ अपने काम में व्यस्त है उसने बताना जरूरी नहीं समझा शायद..पुजारी जी मुझे भांप गये हैं कि मैं रक्तचूसक प्राणी हूँ,वे बताने लगे,
"गोपी भाई का परिवार ही वकील साब का नया मकान बना रहे हैं,इनके परिवार के सभी सदस्य यहीं हैं"
पुजारी जी की बात मुझे अब कुछ समझ आ रही है। वे और साफ कर रहे है,उन्होंने उंगली से इशारा करते हुए कहा.
"वो वहां देख रहे हो..हां.. ठीक वहीं..दूसरे पेड़ के नीचे सड़क पर सीमेंट वगैरह मिलाते हुए जो नौजवान दिख रहा है,वो इनका बेटा इन्दर है,और वो जो औरत देख रहे हो,सीमेंट,मिट्टी में सनी गुलाबी साड़ी पहने,जो गिट्टी-मौरंग से भरे तसले उठा रही है,वो इनकी बहू है।"
"अच्छा..अच्छा.."
मै उत्सुकता को धीरे-धीरे कम कर रहा हूं।मग़र ये बच्चे मुझे सुकून नहीं लेने दे रहे।
"पुजारी जी! फिर ये बच्चे स्कूल वग़ैरह नहीं जाते?"
इस बार अधेड़ बोल रहा है,
"जाते थे..अब नहीं जाते..इनकी ज़िन्दगी इनके लिये सबसे बड़ा सबक है"
आवाज़ में अजीब कसमसाहट है। मैं गुत्थियों के आकाश में गुलाटियां मार रहा हूँ।
"फिर ऐसा क्या हुआ? अब ये बच्चे क्यों नहीं जाते स्कूल?"
अधेड़ अपने काम में व्यस्त है,पुजारी जी एकटक निहार कर बोल रहे हैं
"हरि इच्छा नारायण!..भैया..ज़िन्दगी है सब झेलना पड़ता है...अच्छा..अब मैं मंदिर की सफ़ाई कर दूं ज़रा..मन करे तो बैठो..आता हूँ"
पुजारी जी मुझे ख़जूर पर लटका छोड़ कर अपनी मठिया में रखी मूर्ति को मज्जन क्रिया कराने गये हैं। मैं अनमने मन से उठकर चल पड़ा हूँ
"अच्छा चाचा,चलते हैं!"
अधेड़ को हाँथ जोड़कर अभिवादन किया मैनें। दोनों बच्चों को अपनी मुस्कान तोहफ़े में दी है और उनकी कोमलता मेरे सीने में घर बना रहने लगी है।
उसी दूसरे पेड़ के सामने से गुजरते हुये इन्दर और उसकी पत्नी को ताकता हुआ आगे निकल आया हूँ। करीबन सौ मीटर आगे।
"कहाँ जायेंगे भैया?"
एक ठेलिया चालक ने अभी-अभी मेरे सामने अपनी ठेलिया रोककर पूंछ लिया मुझसे। इस शहर से दुनिया के किसी भी शहर में आपका हाल कोई जिस पल पूछ लेता है, वो पल आपका उस फलां शहर में बिताए हुये खूबसूरत पलों में से एक होता है। ठेलिया चालक ने हरे रंग की टी-शर्ट और नीला लोवर पहन रखा है। घने घुंघराले बालों पर सीमेंट की सफेदी है।
"बस क्रासिंग तक ही जाना है,पर आप कौन,क्यों रुक गए?"
"मैं आपको बहुत देर से देख रहा था, आप पुजारी काका और बप्पा(पिताजी) के पास बैठे हुये थे। मुझे अभी सीमेंट की बोरियां लादने जाना है गायत्री स्टोर तक..आइये आपको छोड़ देता हूं.."
"अच्छा! तुम्हीं इन्दर हो?"
"हां"
इन्दर ने एक नई बोरी ठेलिया के पटरों पर डाल दी है जिससे मेरी पैंट सलामत रहे। ठेलिया अब धीरे-धीरे बढ़ चली है।
"इन्दर भाई! आपके बच्चे बहुत प्यारे हैं"
"अरे भैया!बहुत शैतान और शरारती हैं दोनों"
"वो तो होंगे ही आखिर बच्चे हैं,मगर एक बात बताओ तुम लोग यहां क्यों आये हो काम करने? ज़मीन-अमीन तो होगी न गांव में?"
"थी..पर अब नहीं है"
"क्या मतलब?"
"तब मेरी शादी नहीं हुई थी,हमारे बाबा जी ने ज़मीन का बंटवारा कर दिया था।बप्पा दो भाई हैं। ये बड़े हैं। क़रीब दस एकड़ जमीन के दो हिस्से हुये। अचानक चाचा के बड़े लड़के का क़त्ल हो गया। बप्पा को जेल जाना पड़ा। कुछ रोज़ हम भी रहे थे जेल में और फिर.."
"फिर क्या...?"
"फिर चाचा ने हम दोनों को जेल से निकलवाया और कोर्ट- कचहरी के चक्कर में दसों एकड़ जमीन बिक गयी"
"हे भगवान!..उस लड़के को सच में तुम लोगों ने मारा था?"
"मारा तो नहीं था पर क्या होता है? ग़रीबी सच साबित नहीं कर पाती,इसलिये हम आज ऐसे हैं"
"तुम्हारे चाचा ही तुमको क्यों छुटाए यार?"
"क्योंकि वो जानते थे कि असलियत क्या है?"
"तुम्हारी ज़मीन किसने ली?"
" हमारे चाचा ने"
"कौन है तुम्हारा चाचा?"
"यही वकील साब! जिनका हम घर बना रहे हैं"
मेरा अचम्भापन चरम पर है। ये गुत्थी जहां थी वही है अब भी।
"रुको यार!आख़िर माजरा क्या है इन्दर भाई? मुझे कुछ समझ नहीं आया"
ठेलिया रुक गयी है।क्रासिंग अब क़रीब सौ मीटर दूर है। इन्दर ने अपने बालों को संभाल कर सीमेंट झाड़ दी है थोड़ी,
और मुस्करा रहा है। "ऊपर वाले का खेल है भैया! असल में वो क़त्ल नहीं आत्महत्या थी,जोकि उस लड़के ने अपने चरित्र के चलते की थी। चाचा जी ने उसकी जान को ज़मीन से अदा करने का खेल रचा और वे जीत गये..बस..सीधी सी बात है इसमें इतना क्या उलझना.."
इन्दर ने अपनी बात पूरी कर दी है। इतनी बड़ी कठिनाई को इतनी आसानी से बयाँ करता है भला कोई?
"और तुम लोग अब भी उस नीच का नया घर बना रहे हो,क्यों?"
"हम लोग मज़दूर हैं,काम मिलता है हम करते हैं,हमें काम से मतलब है काम किसका है इससे नहीं। बप्पा कहते हैं,दुश्मन जब हमें खुश देखते हैं तो उनके कलेजे पर सांप लोटते हैं,ये लड़ाई अभी जारी है,चलती रहेगी यूँ ही"
इन्दर ने ठेलिया फिर से चलानी शुरू की है। मैं क्रासिंग पर उतर गया हूँ।इन्दर को जाते हुये देख रहा हूँ। अचानक उसकी टीशर्ट पर मेरी निगाह चली गयी है,जिसकी पीठ पर लिखा है,
"भवन निर्माण की सर्वोत्तम वस्तु-मैं हूँ न"
छोड़ों भी,किसी सीमेंट कंपनी का प्रचार होगा बस..