शहर में बड़ी चहल पहल थी।सभी धार्मिक स्थलों पर आज कुछ ख़ास भीड़ भाड़ थी।जगह जगह लोगों ने स्टाल लगा रखे थे।लाउडस्पीकरों की वजह से माहौल संगीतमय था।आने जाने वाले हर मुसाफिर को लोग रोक रोक कर प्रसाद दे रहे थे।कहीं किसी स्टाल पर पूड़ी-सब्जी तो कहीं शरबत कहीं हलवा जैसे बहुत सी खाने पीने वाली चीजे बांटी जा रही थी।बड़ी-बड़ी कारों से उतरकर भी लोग भीड़ होते हुये भी प्रसाद का मजा ले रहे थे।आज इंसान,इंसान पर इसलिए मेहरबान था क्योंकि आज जेठ महीने का पहला मंगल था।जिसे बड़ा मंगल कहते हैं।
शहर में किराये से रहने वाले लोगों ने तो आज अपने घर में चूल्हे भी नही जलाये।घर से निकलकर एक एक करके कई जगह खाते और जब पेट भर जाता तब ज़ेब से पॉलीथिन निकालकर उसमे किसी और के नाम का झांसा देकर अपने शाम के भी खाने का इंतजाम करके वापस चले जा रहे थे।कुछ औरते भी इसी क्रम को दोहरा रही थी।वो भी आज खुश थी और हो भी क्यों न...चूल्हा औरत के लिए आजकल समस्या जो बन गया है और कम से कम कुछ तो राहत मिली आज।सारे शहर के ऐसे माहौल में शायद ही कोई भूखा रहता।
झुग्गियों में रहनेवाले लोग भी जी भर खा रहे थे।औरते,बच्चे,बूढ़ा,जवान हर कोई पेट भरने के बाद जी भर दुआयें दे रहे थे।इन झुग्गियों में हर धर्म के लोग रहते थे।जो हिन्दू थे वे खाने के बाद झिल्लियों में भी ला रहे थे और कुछ मुसलमान भी इसमें शामिल थे उन्हें भी आज अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाने का अच्छा मौका मिल गया।वे ऊपर वाले का शुक्रिया अदा कर रहे थे क्योंकि आज उन्हें रोज की तरह खाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
इन्ही झुग्गियों में से एक झुग्गी सफ़क़त मियां की थी।पेशे से रिक्सा चालक सफ़क़त का परिवार आज मुश्किलों से घिरा था।उसके परिवार में दो बच्चे एक बीवी को मिलाकर कुल चार लोग थे।उसके परिवार का भरण-पोषण एक रिक्से से होता था।एक हफ्ते पहले अपने लड़के के इलाज़ के लिए रिक्सा गिरवीं रखा था।आज उसके रक़म लौटने का समय ख़त्म हो गया लेकिन वो रकम नहीं दे पाया।उसके परिवार का सहारा छिन गया।
सफ़क़त के बेटे आज़म ने अम्मी को आवाज़ लगाई,"अम्मी!कुछ खाने को दो।बड़ी ज़ोर की भूख लगी है।"
"अच्छा!रुक ज़रा।अभी कुछ देती हूँ।"गोद में पड़ी सात महीने की बेटी को सँभालते हुये शकीना दबे स्वर से बोली।
शकीना झुग्गी के बाहर उदास बैठे सफ़क़त के पास आकर बोली,"ए जी!सुनते हो,ऐसे बैठने से क्या होगा?आजम को भूख लगी है।वो कुछ खाने को मांग रहा है।"
"तो उसे कुछ खिला न!मुझे क्या बताने आई है?"सफ़क़त ने उसकी और देखा तक नहीं।वह सिर झुकाये अपनी किस्मत को कोश रहा था
"क्या खिलाऊँ उसे?घर में एक दाना नही है।जो चावल थे कल रात में ही ख़त्म हो गए।इस पखवारे तुम लाये भी कहाँ कुछ?साग-सब्जी तो दूर,नमक तक नहीं है।"शकीना यह कहते ही फफक-फफक कर रोने लगी।
सफ़क़त इतना सुनते ही चौंक पड़ा।उस पर जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा हो।न जाने कितने सवाल उसके आसपास मंडराने लगे।वह सोंच नहीं पा रहा था की अब वह अपने परिवार की भूख कैसे मिटाये?
"देख शकीना!अल्लाह हमारी कुछ मदद ज़रूर करेगा।धीरज रख।"सफ़क़त ने उसे सम्भालने की कोशिश की।
"इन बातों से पेट नही भरता जी!अभी उसकी तबियत भी नही सुधरी और अब भुखमरी की नौबत आ पड़ी।हम तो पानी पीकर भी दिन गुज़ार लेंगे मगर आजम को क्या कहोगे?"
"नही शकीना!हम कुछ करते हैं। मगर करें भी तो क्या?"
सफ़क़त मियां को समझ नही आ रहा था की अब वह क्या करें?
शकीना की नज़र सामने से आते ढिल्लू पर पड़ी।हाँथ में कई झिल्लियाँ लिए ढिल्लू झूमता चला आ रहा था।ढिल्लू के पास आते ही शकीना से रहा न गया।उसने पूछा,"ढिल्लू भैया!का ले आये इतनी झिल्लियों में?"
"अरे का का बताये भाभी।बहुत कुछ लाये हैं।आज तो हम लोगों की मौज है।"ढिल्लू अपनी झुग्गी की ओर बढ़ चला।सफ़क़त की झुग्गी के दांयी वाली झुग्गी उसी की थी।शकीना चुप चाप बैठी थी।सफ़क़त भी जैसे ठगा हुआ सा बैठा था।
अपनी झुग्गी में पहुँचते ही ढिल्लू ने अपने बीवी बच्चों को ज़ोर की आवाज लगायी।उसकी झुग्गी की सारी आवाजें शक़ीना के कानों तक पहुँच रहीं थी।
ढिल्लू ने हँसते हुए अपनी बीवी से कहा,"अरे ओ कान्हा की मम्मी!लो आज जी भर खाओ और खिलाओ अपने बच्चों को।आज भगवान की कृपा बरस रही है।जरा देखो तो,क्या-क्या है?"
"अरे वाह कान्हा के पापा!आज तो तुमने कमाल कर दिया।हलवा,पूड़ी,सब्जी,बूंदी,कढ़ी,चावल,खीर,...कहाँ से लाये ये सब?"झिल्लियाँ खोलते हुए ढिल्लू की बीवी ने संदेह से पूछा।
"कहीं चोरी नहीं की है री!"ढिल्लू ने जवाब दिया।"आज बड़ा मंगल है तुझे पता भी है!पूरे शहर में आज जगह-जगह पर भंडारे चल रहे हैं।गरीब-अमीर,फ़क़ीर,जवान,बूढ़े,बच्चे सबको भंडारे में प्रसाद के तौर पर खाना मिल रहा है।मैं भी वही से लाया ये सब।"ढिल्लू ने फ़टे बोरे पर बैठते हुए कहा।
"अच्छा जी!बड़ा नेक काम है भूखे को रोटी मिल रही है,प्यासे को पानी मिल रहा है, वरना हम जैसे गरीबों को तो फटकार और दुत्कार के सिवा कुछ नही मिलता।शुक्र है ऊपर वाले का..."ढिल्लू की बीवी ने खाना परोसते हुए भगवान को धन्यवाद के शब्द कहे।"आओ जी आप भी खा लो"।
"तुम सब खाओ।मेरा क्या है?भूख लगेगी तो फिर किसी भंडारे में जाकर खा लूंगा।"ढिल्लू के ठहाकों के साथ पूरा परिवार हंस उठा।
शकीना का मन अब बार-बार कह रहा था की वह आजम के अब्बू को भंडारे में भेज दे।वो मन ही मन ही सोंचे जा रही थी।
"पूरा शहर पा रहा है तो क्या हमे नहीं मिलेगा?क्या हम इंसान नही हैं?"
लेकिन वह जानती थी की सफ़क़त कभी उसके कहने से हिंदुओं के भंडारे में नही जायेंगें।
"नहीं जायेंगे तो न जायें मैं खुद चली जाऊँगी।आखिर कब तक आजम को भूखा रखूंगी?मेरा मज़हब मेरी औलाद को खाना देना है ,उसकी देखभाल करना है ।मैं मुसलमान हूँ तो क्या इन्सान नहीं?क्या वे,जो खाने-पीने की चीजें बाँट रहे हैं मुझे नहीं देंगें?"
वह सोंच ही रही थी की अचानक किसी ने उसका हाँथ पकड़ते हुए कहा,"अम्मी!"
यह आजम था।"कुछ खाने को दो न!बहुत भूख लगी है।"
शक़ीना फिर रो पड़ी और गुस्से से बोल उठी,"जा कहीं मर! किसी से भीख मांग...और मिटा ले अपनी भूख...दुनिया बहुत बड़ी है कहीं भी चला जा..मैं अब तुझे नहीं खिला सकती...अल्लाह जब पैदा करता है तो खाने का भी इंतज़ाम कर देगा...दूर हो जा मेरी नजरों से..."
शक़ीना की हालत देख सफ़क़त बोला,"पागल हो गयी है क्या?दो चमाट मारूँगा होश ठिकाने आ जायेगा..कोई अपनी औलाद से भला ऐसा सलूक करता है...।"सफ़क़त ने आजम को गोद में उठा लिया।
"अब्बू!अम्मी ऐसा क्यों बोल रहीं हैं?क्या इनकी तबियत ख़राब है?मैंने तो सिर्फ खाना माँगा था।"तेरह साल के आजम ने अपने सवालों से सफ़क़त को हैरान कर दिया।
"कुछ नहीं हुआ मेरे बच्चे अम्मी को.....जा....जा तू थोड़ी देर कहीं खेल कर आ...मैं तब तक कुछ खाने के लिये लेकर आता हूँ..जा..।"आजम को गोद से उतारते हुए सफ़क़त ने उसे बहलाने की कोशिश की।भूख से तड़पता आजम धीरे धीरे क़दमों से झुग्गियों के बीच चला जा रहा था।
कुछ देर तक शक़ीना और सफ़क़त एक दूसरे को देखते रहे।"पगली!तुझे क्या हो गया है?ऐसे कोई भला नाराज होता है।अल्लाह ने तक़लीफ़ दी है तो दाने-पानी का जुगाड़ भी देंगे।तू सब्र रख.."
"सब्र रखूं..लाओ सब्र को गोद में रखूं...सब्र को ओढ़ना बनाऊं..सब्र का बिछौना बनाऊं...सब्र से चूल्हा जलाऊँ...हुँह..सब्र रखूं...सब्र का क्या करें बताओ.. सब्र से आजम की भूख तो नहीं मिट सकती...अल्लाह ने ये कैसी ज़िन्दगी दी है...और सब तो दूर खाने के भी मोहताज हो गए हम...अब...अब..."शक़ीना ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।सफ़क़त को कुछ समझ नही आ रहा था कि अब कैसे अपने परिवार को संभाले?शक़ीना तो अपने बच्चों के लिए बहुत परेशान थी क्यों न हो दुनिया में इससे बड़ा ग़म और क्या होगा की वो ज़िंदा हैं? और उनकी औलाद भूख से तड़प रही थी।
शक़ीना कुछ देर चुप रही।हिम्मत जुटाकर बोली,"सुनो!"
"हाँ बोलो शक़ीना!"
"देखो ढिल्लू कहीं से ढेर सारा खाना झिल्लियों में लेकर आया था।आप भी क्यों नहीं ले आते?वो कह रहा था सबको मिलता है।तो हमे क्यों नहीं मिलेगा?"
"हमें मिलेगा...उन हिंदुओं के भंडारे में...तू पगला गयी है..."
सफ़क़त ये कहकर मुस्करा उठा।
"तू जानती भी है की क्या है आज?हिंदुओं के किसी देवता की पूजा है..और हम ठहरे मुसलमान...वो भी पक्के मुसलमान.....हिंदुओं के भंडारे में खायें तो मज़हब और ईमान का क्या होगा?दोज़ख़ में भी जगह न मिले.."
"अच्छा! वो हिन्दू हैं...हम मुसलमान हैं...देवता उनके..अल्लाह हमारे..या अल्लाह...!"
उसने आसमान की ओर दुआओं भरे हाँथ उठाये।
"या अल्लाह!ये हिन्दू-मुसलमान कहाँ से आ गये तूने तो इंसान बनाये थे अब तुझे दर्द होगा न!इंसान तो मर गये...कुछ हिन्दू बचे हैं,कुछ मुसलमान..."
शक़ीना रो रही थी।सफ़क़त सर पकड़कर बैठ गया।गोद में पड़ी सात महीने की मुन्नी अचानक रो उठी।शक़ीना ने उसे दूध पिलाना शुरू किया।झुग्गी के अंदर जज़्बाती माँ,मज़हब के आगे मज़बूर बाप और ख़ामोशी थी।
"अम्मी!"
बेरहम ख़ामोशी को चीरती हुई एक प्यारी आवाज़ आयी।
ये आज़म था।दोनों हांथों में कई झिल्लियाँ पकड़े वो अंदर घुसा।
"अम्मी!मैं खाना ले आया और पता है अब्बू को हलवा पसन्द है न मैं वो भी लाया...मैंने पेट भर के खाया भी...लो..अब तुम और अब्बू भी खा लो.."
आज़म ने झिल्लियाँ शक़ीना की तरफ बढ़ा दीं।
"कहाँ से लेकर आया रे तू ये सब?"सफ़क़त ने कड़कती आवाज़ में पूछा।
"भंडारे से अब्बू!"
"तू जानता है की तू मुसलमान है उन्होंने तुझसे पूछा नहीं की तू कौन है?तेरी टोपी और कुर्ते से भी नहीं पहचाना.बोल..!"
"पहचान लिया था अब्बू!लेकिन उन्होंने इस बात पर गौर नहीं किया कि मैं मुसलमान का बेटा हूँ..उन्होंने मुझे देखते ही मेरे हाँथ में सब्जी-पूड़ी की प्याली थमा दी।उन्होंने ये जान लिया था की मैं भूखा हूँ...।"
सफ़क़त को समझ आ गया की वो गलत था।भूख मज़हब से बड़ी होती है।इंसान किसी भी धर्म में पाये जा सकते हैं।हिन्दू या मुसलमान नाम की हंथकड़िया इंसान के हांथो में पड़ी हुई हैं।
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=सुशान्त मिश्र
शहर में किराये से रहने वाले लोगों ने तो आज अपने घर में चूल्हे भी नही जलाये।घर से निकलकर एक एक करके कई जगह खाते और जब पेट भर जाता तब ज़ेब से पॉलीथिन निकालकर उसमे किसी और के नाम का झांसा देकर अपने शाम के भी खाने का इंतजाम करके वापस चले जा रहे थे।कुछ औरते भी इसी क्रम को दोहरा रही थी।वो भी आज खुश थी और हो भी क्यों न...चूल्हा औरत के लिए आजकल समस्या जो बन गया है और कम से कम कुछ तो राहत मिली आज।सारे शहर के ऐसे माहौल में शायद ही कोई भूखा रहता।
झुग्गियों में रहनेवाले लोग भी जी भर खा रहे थे।औरते,बच्चे,बूढ़ा,जवान हर कोई पेट भरने के बाद जी भर दुआयें दे रहे थे।इन झुग्गियों में हर धर्म के लोग रहते थे।जो हिन्दू थे वे खाने के बाद झिल्लियों में भी ला रहे थे और कुछ मुसलमान भी इसमें शामिल थे उन्हें भी आज अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाने का अच्छा मौका मिल गया।वे ऊपर वाले का शुक्रिया अदा कर रहे थे क्योंकि आज उन्हें रोज की तरह खाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
इन्ही झुग्गियों में से एक झुग्गी सफ़क़त मियां की थी।पेशे से रिक्सा चालक सफ़क़त का परिवार आज मुश्किलों से घिरा था।उसके परिवार में दो बच्चे एक बीवी को मिलाकर कुल चार लोग थे।उसके परिवार का भरण-पोषण एक रिक्से से होता था।एक हफ्ते पहले अपने लड़के के इलाज़ के लिए रिक्सा गिरवीं रखा था।आज उसके रक़म लौटने का समय ख़त्म हो गया लेकिन वो रकम नहीं दे पाया।उसके परिवार का सहारा छिन गया।
सफ़क़त के बेटे आज़म ने अम्मी को आवाज़ लगाई,"अम्मी!कुछ खाने को दो।बड़ी ज़ोर की भूख लगी है।"
"अच्छा!रुक ज़रा।अभी कुछ देती हूँ।"गोद में पड़ी सात महीने की बेटी को सँभालते हुये शकीना दबे स्वर से बोली।
शकीना झुग्गी के बाहर उदास बैठे सफ़क़त के पास आकर बोली,"ए जी!सुनते हो,ऐसे बैठने से क्या होगा?आजम को भूख लगी है।वो कुछ खाने को मांग रहा है।"
"तो उसे कुछ खिला न!मुझे क्या बताने आई है?"सफ़क़त ने उसकी और देखा तक नहीं।वह सिर झुकाये अपनी किस्मत को कोश रहा था
"क्या खिलाऊँ उसे?घर में एक दाना नही है।जो चावल थे कल रात में ही ख़त्म हो गए।इस पखवारे तुम लाये भी कहाँ कुछ?साग-सब्जी तो दूर,नमक तक नहीं है।"शकीना यह कहते ही फफक-फफक कर रोने लगी।
सफ़क़त इतना सुनते ही चौंक पड़ा।उस पर जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा हो।न जाने कितने सवाल उसके आसपास मंडराने लगे।वह सोंच नहीं पा रहा था की अब वह अपने परिवार की भूख कैसे मिटाये?
"देख शकीना!अल्लाह हमारी कुछ मदद ज़रूर करेगा।धीरज रख।"सफ़क़त ने उसे सम्भालने की कोशिश की।
"इन बातों से पेट नही भरता जी!अभी उसकी तबियत भी नही सुधरी और अब भुखमरी की नौबत आ पड़ी।हम तो पानी पीकर भी दिन गुज़ार लेंगे मगर आजम को क्या कहोगे?"
"नही शकीना!हम कुछ करते हैं। मगर करें भी तो क्या?"
सफ़क़त मियां को समझ नही आ रहा था की अब वह क्या करें?
शकीना की नज़र सामने से आते ढिल्लू पर पड़ी।हाँथ में कई झिल्लियाँ लिए ढिल्लू झूमता चला आ रहा था।ढिल्लू के पास आते ही शकीना से रहा न गया।उसने पूछा,"ढिल्लू भैया!का ले आये इतनी झिल्लियों में?"
"अरे का का बताये भाभी।बहुत कुछ लाये हैं।आज तो हम लोगों की मौज है।"ढिल्लू अपनी झुग्गी की ओर बढ़ चला।सफ़क़त की झुग्गी के दांयी वाली झुग्गी उसी की थी।शकीना चुप चाप बैठी थी।सफ़क़त भी जैसे ठगा हुआ सा बैठा था।
अपनी झुग्गी में पहुँचते ही ढिल्लू ने अपने बीवी बच्चों को ज़ोर की आवाज लगायी।उसकी झुग्गी की सारी आवाजें शक़ीना के कानों तक पहुँच रहीं थी।
ढिल्लू ने हँसते हुए अपनी बीवी से कहा,"अरे ओ कान्हा की मम्मी!लो आज जी भर खाओ और खिलाओ अपने बच्चों को।आज भगवान की कृपा बरस रही है।जरा देखो तो,क्या-क्या है?"
"अरे वाह कान्हा के पापा!आज तो तुमने कमाल कर दिया।हलवा,पूड़ी,सब्जी,बूंदी,कढ़ी,चावल,खीर,...कहाँ से लाये ये सब?"झिल्लियाँ खोलते हुए ढिल्लू की बीवी ने संदेह से पूछा।
"कहीं चोरी नहीं की है री!"ढिल्लू ने जवाब दिया।"आज बड़ा मंगल है तुझे पता भी है!पूरे शहर में आज जगह-जगह पर भंडारे चल रहे हैं।गरीब-अमीर,फ़क़ीर,जवान,बूढ़े,बच्चे सबको भंडारे में प्रसाद के तौर पर खाना मिल रहा है।मैं भी वही से लाया ये सब।"ढिल्लू ने फ़टे बोरे पर बैठते हुए कहा।
"अच्छा जी!बड़ा नेक काम है भूखे को रोटी मिल रही है,प्यासे को पानी मिल रहा है, वरना हम जैसे गरीबों को तो फटकार और दुत्कार के सिवा कुछ नही मिलता।शुक्र है ऊपर वाले का..."ढिल्लू की बीवी ने खाना परोसते हुए भगवान को धन्यवाद के शब्द कहे।"आओ जी आप भी खा लो"।
"तुम सब खाओ।मेरा क्या है?भूख लगेगी तो फिर किसी भंडारे में जाकर खा लूंगा।"ढिल्लू के ठहाकों के साथ पूरा परिवार हंस उठा।
शकीना का मन अब बार-बार कह रहा था की वह आजम के अब्बू को भंडारे में भेज दे।वो मन ही मन ही सोंचे जा रही थी।
"पूरा शहर पा रहा है तो क्या हमे नहीं मिलेगा?क्या हम इंसान नही हैं?"
लेकिन वह जानती थी की सफ़क़त कभी उसके कहने से हिंदुओं के भंडारे में नही जायेंगें।
"नहीं जायेंगे तो न जायें मैं खुद चली जाऊँगी।आखिर कब तक आजम को भूखा रखूंगी?मेरा मज़हब मेरी औलाद को खाना देना है ,उसकी देखभाल करना है ।मैं मुसलमान हूँ तो क्या इन्सान नहीं?क्या वे,जो खाने-पीने की चीजें बाँट रहे हैं मुझे नहीं देंगें?"
वह सोंच ही रही थी की अचानक किसी ने उसका हाँथ पकड़ते हुए कहा,"अम्मी!"
यह आजम था।"कुछ खाने को दो न!बहुत भूख लगी है।"
शक़ीना फिर रो पड़ी और गुस्से से बोल उठी,"जा कहीं मर! किसी से भीख मांग...और मिटा ले अपनी भूख...दुनिया बहुत बड़ी है कहीं भी चला जा..मैं अब तुझे नहीं खिला सकती...अल्लाह जब पैदा करता है तो खाने का भी इंतज़ाम कर देगा...दूर हो जा मेरी नजरों से..."
शक़ीना की हालत देख सफ़क़त बोला,"पागल हो गयी है क्या?दो चमाट मारूँगा होश ठिकाने आ जायेगा..कोई अपनी औलाद से भला ऐसा सलूक करता है...।"सफ़क़त ने आजम को गोद में उठा लिया।
"अब्बू!अम्मी ऐसा क्यों बोल रहीं हैं?क्या इनकी तबियत ख़राब है?मैंने तो सिर्फ खाना माँगा था।"तेरह साल के आजम ने अपने सवालों से सफ़क़त को हैरान कर दिया।
"कुछ नहीं हुआ मेरे बच्चे अम्मी को.....जा....जा तू थोड़ी देर कहीं खेल कर आ...मैं तब तक कुछ खाने के लिये लेकर आता हूँ..जा..।"आजम को गोद से उतारते हुए सफ़क़त ने उसे बहलाने की कोशिश की।भूख से तड़पता आजम धीरे धीरे क़दमों से झुग्गियों के बीच चला जा रहा था।
कुछ देर तक शक़ीना और सफ़क़त एक दूसरे को देखते रहे।"पगली!तुझे क्या हो गया है?ऐसे कोई भला नाराज होता है।अल्लाह ने तक़लीफ़ दी है तो दाने-पानी का जुगाड़ भी देंगे।तू सब्र रख.."
"सब्र रखूं..लाओ सब्र को गोद में रखूं...सब्र को ओढ़ना बनाऊं..सब्र का बिछौना बनाऊं...सब्र से चूल्हा जलाऊँ...हुँह..सब्र रखूं...सब्र का क्या करें बताओ.. सब्र से आजम की भूख तो नहीं मिट सकती...अल्लाह ने ये कैसी ज़िन्दगी दी है...और सब तो दूर खाने के भी मोहताज हो गए हम...अब...अब..."शक़ीना ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।सफ़क़त को कुछ समझ नही आ रहा था कि अब कैसे अपने परिवार को संभाले?शक़ीना तो अपने बच्चों के लिए बहुत परेशान थी क्यों न हो दुनिया में इससे बड़ा ग़म और क्या होगा की वो ज़िंदा हैं? और उनकी औलाद भूख से तड़प रही थी।
शक़ीना कुछ देर चुप रही।हिम्मत जुटाकर बोली,"सुनो!"
"हाँ बोलो शक़ीना!"
"देखो ढिल्लू कहीं से ढेर सारा खाना झिल्लियों में लेकर आया था।आप भी क्यों नहीं ले आते?वो कह रहा था सबको मिलता है।तो हमे क्यों नहीं मिलेगा?"
"हमें मिलेगा...उन हिंदुओं के भंडारे में...तू पगला गयी है..."
सफ़क़त ये कहकर मुस्करा उठा।
"तू जानती भी है की क्या है आज?हिंदुओं के किसी देवता की पूजा है..और हम ठहरे मुसलमान...वो भी पक्के मुसलमान.....हिंदुओं के भंडारे में खायें तो मज़हब और ईमान का क्या होगा?दोज़ख़ में भी जगह न मिले.."
"अच्छा! वो हिन्दू हैं...हम मुसलमान हैं...देवता उनके..अल्लाह हमारे..या अल्लाह...!"
उसने आसमान की ओर दुआओं भरे हाँथ उठाये।
"या अल्लाह!ये हिन्दू-मुसलमान कहाँ से आ गये तूने तो इंसान बनाये थे अब तुझे दर्द होगा न!इंसान तो मर गये...कुछ हिन्दू बचे हैं,कुछ मुसलमान..."
शक़ीना रो रही थी।सफ़क़त सर पकड़कर बैठ गया।गोद में पड़ी सात महीने की मुन्नी अचानक रो उठी।शक़ीना ने उसे दूध पिलाना शुरू किया।झुग्गी के अंदर जज़्बाती माँ,मज़हब के आगे मज़बूर बाप और ख़ामोशी थी।
"अम्मी!"
बेरहम ख़ामोशी को चीरती हुई एक प्यारी आवाज़ आयी।
ये आज़म था।दोनों हांथों में कई झिल्लियाँ पकड़े वो अंदर घुसा।
"अम्मी!मैं खाना ले आया और पता है अब्बू को हलवा पसन्द है न मैं वो भी लाया...मैंने पेट भर के खाया भी...लो..अब तुम और अब्बू भी खा लो.."
आज़म ने झिल्लियाँ शक़ीना की तरफ बढ़ा दीं।
"कहाँ से लेकर आया रे तू ये सब?"सफ़क़त ने कड़कती आवाज़ में पूछा।
"भंडारे से अब्बू!"
"तू जानता है की तू मुसलमान है उन्होंने तुझसे पूछा नहीं की तू कौन है?तेरी टोपी और कुर्ते से भी नहीं पहचाना.बोल..!"
"पहचान लिया था अब्बू!लेकिन उन्होंने इस बात पर गौर नहीं किया कि मैं मुसलमान का बेटा हूँ..उन्होंने मुझे देखते ही मेरे हाँथ में सब्जी-पूड़ी की प्याली थमा दी।उन्होंने ये जान लिया था की मैं भूखा हूँ...।"
सफ़क़त को समझ आ गया की वो गलत था।भूख मज़हब से बड़ी होती है।इंसान किसी भी धर्म में पाये जा सकते हैं।हिन्दू या मुसलमान नाम की हंथकड़िया इंसान के हांथो में पड़ी हुई हैं।
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=सुशान्त मिश्र