Tuesday, 21 June 2016

स्वार्थी मनुष्य

                     .......स्वार्थी मनुष्य.......

जीवात्माओं के चराचर जगत में
साँसारिक बंधनों से मुक्त
समस्त अभिव्यक्तियों से परे,
कहीं दूर सुदूर ......
किसी अन्य ग्रह पर..जीवात्माओं के चराचर जगत में
साँसारिक बंधनों से मुक्त
समस्त अभिव्यक्तियों से परे,
कहीं दूर सुदूर ......
किसी अन्य ग्रह पर..
असम्भव कल्पना करने जाते लोग,
कुछ जीतकर भी
कुछ हारकर भी
कुछ खोकर भी
कुछ पाकर भी
संतुष्टि की गागर नहीं भर पा रहे..
निरर्थक स्वार्थ सिद्धि हेतु,,

सार्थक समझते हैं,,,
दुष्कर्म.....
वो लोग....... जो मानव हैं........।....१....
सच मानिये..वो मानव जो
आदि से अनन्त तक
पाताल से ब्रम्हाण्ड तक
खोज सकता है खुद का अस्तित्व,,
किन्तु पता नहीं क्यों????,
अभिशापित शैली को अमरत्व मानकर
पी रहा है नित्य प्रति हलाहल विष को.....।.......२.....
उसे मालूम होगा यह भी,
स्वावलंबन का दृष्टिकोण है तो सार्थक
किन्तु......
वो क्रियाएँ जो नष्ट करतीं हैं,
मानवीय प्रवृत्ति को
उसके अस्तित्व को
वे कपटी..शत्रु हैं मित्र जैसी..........।...३....
जानता है मानव यह भी,,
पुष्प पर मँडराता भँवरा
उसे रिझाकर,उसे बहलाकर
उसे फुसलाकर,उसे मनाकर
किसी दिन रसपान करके चला जाता है
किसी अन्य बाग के पुष्पों को छलने...
वैसे ही जैसे..,,
कोई अबोध किशोरी फँस जाती है
किसी काल्पनिक प्रेम जाल में.
जिसका ,,,,
न कोई जड़त्व है
न कोई घनत्व है
है तो किन्तु,,,,,,
मात्र प्रेम का चमकता सागर
उसे डुबाने के लिए
मात्र गुलाब का झूठा पुष्प
उसे रिझाने के लिए............।....४.....
और वो प्रेमी....,,,,
रूप,रस,श्रँगार आदि सब
किसी बाजार में नीलाम कर
अँकुरित वर्तमान के साथ साथ
कुचलकर स्वर्णिम भविष्य भी
चला जाता है कहीं दूर,,
किसी अन्य शिकार की तलाश में......।....5......
आह...........................!!!!
कितना व्यथित दृश्य होता होगा??
किंचित सोचना ही निवारण नहीं इसका
आत्ममंथन कौन करेगा?
मनोमज्जन कौन करेगा ?
मैं प्रश्नचिह्नित करूँ..तो किसे?
स्वयं को..
आपको..
या सारे समाज को..........।.....6.......
स्वार्थ सुमन खिलाने के लिए
क्या जरूरी है?
किसी हरे भरे चमन को उजाड़ना..
मैं
आप
और ये समाज
क्या सच में??कुछ भी नहीं कर सकते
नहीं!! असम्भव कुछ भी नहीं
किन्तु...
मैं...स्वार्थ नहीं छोड़ सकता
आप...स्वार्थ नहीं छोड़ सकते
ये समाज भी....स्वार्थ नहीं छोड़ सकता.........।........7.....
स्वार्थ की अँगुलियों पर थिरकती मानव प्रजाति
प्रतीत होती है
वैश्या में परिवर्तित हो रही बदचलन नारी......।....8.....
मानो या न मानो
किंतु
मैं स्वार्थी हूँ
आप स्वार्थी हैं
और ये समाज भी स्वार्थी है............।.......9........
किन्तु,परन्तु,इत्यादि शब्दों का
कोई अस्तित्व ही नहीं है यहाँ
सर्वथा सत्य यही है कि
संसार की सबसे स्वार्थी प्रजाति
मनुष्य ही है।....................।....१०...
                                        ~:सुशान्त मिश्र

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