पूरे एक महीने के रोज़ों के बाद शाम को सब ईद के चाँद का दीद करने इकट्ठे हुये थे।अभी-अभी मग़रिब की नमाज़ पढ़ी गयी।मौलाना साहब का अंदाज़ा है कि चाँद महज़ बीस मिनट के भीतर ही निकल आयेगा।सब ख़ुश थे।आसमान की ओर एक टक लगाये पूरा कस्बा छतों पर था। पंचायत टीले पर लगी भीड़ भी इसी दीद के इंतज़ार में थी। इस सबके बावजूद एक लालू ही था जो अपनी अन्धी अम्मा के साथ घर में क़ैद था। अम्मा बार बार कहती,"जा रे लालू! तू भी चाँद का दीदार कर ले। बड़े नसीब वालों को मिलता है उसका दीद, मुझ बुढ़िया को ही देख ले,अल्लाह ने जब तक चाहा जी भर दुनिया देखी ,चाँद देखा,ईद की दावतें उड़ाई,और अब जब आंखों से रौशनी ही रुख़सत हो गयी तो दुनिया का क्या!ख़ुद का भी दीद नहीं होता। तू जा न! अब भी बैठा है।"
"अम्मा! क्यों इतना परेशान हो रही है? जब चाँद दिखेगा तो सारा क़स्बा ख़ुशी से झूम उठेगा,हमें भी मालूम चल जायेगा।जाना कोई ज़रूरी तो नहीं" लालू दलीलें देकर अपना काम करने लगता। अम्मा उठकर चारपाई पर लेंट गयीं।
"हां.. हां.. ठीक है...अब न जा कोई बात नहीं! मेरे कहने से क्यों जायेगा? जाता तो तू ख़ूब था,चाँद का दीद भी करता था और चांद की रात हमेशा देर से लौटता भी था।अब न जाने क्या हुआ? लेकिन ये जान ले मेरे बच्चे! मैं तेरी अम्मा हूं,सब मालूम था मुझे!तब भी,और आज भी,सिर्फ़ आंखें नहीं रहीं तो क्या?अपने लाल का दर्द तो महसूस ही होता है न"
लालू छलक उठा। मज़ाकिया अंदाज़ में ख़ुद को ख़ुद में कैद कर अम्मा को समझाने लगा,
"अम्मा!!! ये तू क्या बफले जा रही है? तब दिन कुछ और थे,अब वो नहीं रहे। बच्चा था तब मैं अम्मा। अच्छा मुँह खोल दवाई पी ले।"
सर में हाँथ लगाकर उठाया और चम्मच में घोली दवाई अम्मा को पिलाकर फिर से लिटा दिया।
"चल अब सो जा अम्मा!कल ईद है मुझे बड़ी मेहनत करनी है। सारे मेहमान इकट्ठे होंगें,उनके इस्तक़बाल का इंतज़ाम भी तो करना है न।"
"हां में सो जाऊंगी,पर तू एक बार चाँद..."
अम्मा का दिल नहीं मान रहा था,पर लालू बीच में टोंकते हुये बोला,
"क्या अम्मा! अब तुम सो जाओ,चाँद जल्द ही आने वाला है,पता चल जायेगा।"
"जैसी तेरी मर्ज़ी...वैसे अब मेरी आँखें तू ही है न बेटा! सो कह दिया..नहीं जाना चाहता,तो मत जा.."
हमेशा से बन्द आंखों को अम्मा पलकों से ढकते हुये,चारपाई की पाटी पकड़ लेट गयी। लालू बर्तन समेटने लगा।कुछ सफाई करनी थी सो झाड़ू उठाया ही था कि साबिर आ धमका।बड़ी हड़बड़ाहट में घर के अंदर शरीक हुआ।
"अबे लालू! कहाँ हो बे?"
"हां आता हूँ रे! ठहर ज़रा"
हाँथ में झाड़ू लिये लालू सामने आया,
"क्या हुआ? क्यों गला फाड़ रहा है? चाँद तेरी छत पे गिर पड़ा क्या जो इत्ता ख़ुश हुये जा रहा है"
"अरे नहीं रे! फ़िज़ूल का बक़वास मत कर। चल मेरे साथ अभी"
"पर कहाँ भाई"
"अरे तू चल तो सही फिर बताऊंगा"
"रहने दे,मुझे कहीं नहीं जाना यार! तू जा न,अम्मा भी बोल-बोल के थक गई,वैसे भी मुझे बहुत काम है,तू जा रे"
"अरे काम फिर कर लियो,अभी चल तो सही तुझे दिखाना है कुछ"
"बतायेगा भी कुछ कि सिर्फ भड़भड़ाता ही रहेगा,ऐसा क्या दिखायेगा तू मुझे?"
"वो क्या है कि,उसे मैं अपने लफ़्ज़ों से बयाँ नही कर सकता,लेकिन इतना पक्का है मेरे जाँ नशीं!तू दीद कर उछल पड़ेगा"
"अच्छा!!!! अगर फ़िज़ूल कुछ हुआ तो?"
"अल्लाह क़सम! जान ले लेना मेरी जान! तू चल तो सही"
साबिर ने झाड़ू हाँथ से छीनकर आंगन में हीं फेंक दिया।हाँथ पकड़ कर साथ चल दिये दोनों।
"हाँथ छोड़ मेरा! अब मैं बच्चा नहीं रहा रे"
लालू ने साबिर का हाँथ झटकते हुये कहा। साबिर रिश्ते में लालू का चचाजान लगता था। बचपन में अक्सर लालू का हाँथ पकड़कर चलने की आदत थी साबिर की,सो आदत न गयी अब तक।उम्र में कोई खासा अंतर न था यही कोई दो बरस ही बड़ा होगा साबिर लालू से। दोनो की ख़ास बात ये थी कि दोनों ही माह-ए-रमज़ान के मुबारक़ वक़्त में दुनिया मे तशरीफ़ लाये थे।लालू चौथे रोज़े के दिन का था और साबिर पंद्रहवें रोज़े के दिन का। यारी-दोस्ती सारी कहावतें बौनी हैं इनके।ये रिश्तेदार कम यार ज़्यादा हैं।
"अच्छा बेटे! अब ये तू मुझे बतायेगा? अरे मुझे तेरे अलावा भी कुछ याद है, तू जिस दिन पखाना अकेले जाना सीखा था,उस दिन से आजतक,सब जानता हूँ मैं,अबे! चचा हूँ तुम्हारा भूलो न"
साबिर कभी-कभी मसखरी कर देता था,चचा होने के नाम पर। दोनो मुस्करा उठे। चौराहे से दायीं ओर मुड़ते ही लालू सहम गया।
"अरे मेरे चचा! किधर जा रहे हो ज़नाब? जानते हैं न आप कि वो किसका मोहल्ला है? जीते जी ज़न्नत दिखाओगे आप,अल्लाह क़सम"
साबिर मुस्कराया,"अरे जानता हूँ न मेरे बच्चे! इधर मेरे लालू का चाँद रहता है,जिसका दीदार उसके लिए ज़न्नत से भी बढ़कर है,और ईद मनाने के लिये चाँद का दीद ज़रूरी होता है न जाँ नशीं!फिर किस बात का डर? चाँद का दीद करना कोई गुनाह तो नहीं है न! कल पूरी दुनिया ईद मनायेगी तो क्या मेरा लालू नहीं मनायेगा?"
अचानक लालू की आंखों में आँसूं आ गये। उसका कल उसकी पीठ से उधड़कर उसकी हथेलियों में आ गिरा।
"सच कह रहे हो न चचा?"
"नहीं तो! तुझे रुलाने से मुझे ख़ुशी मिलेगी न पगले! यकीन नहीं होता तो चल"
"क्या सच में.....?"
लालू की ख़ुशी आंखों में यूं छलकी की ज़ुबान और गले ने अपना दम तोड़ दिया।
"हां रे! साफ़िया शहर से लौट आयी है। उसके घर पे वो अपना ज़ाकिर है न अरे वो ड्राइवर ज़ाकिर,उसी ने घर आते ही बताया..जैसे ही पता चला में दौड़कर तेरे पास आ गया..अब चल देर मत कर,वरना चाँद निकल आया तो तेरा चाँद ग़ुम हो जायेगा.. चल"
लालू,साबिर के गले लिपट पड़ा।दोनों की आंखें नम थी। बचपन से अब तक के वो हसीन दिनों की खट्टी-मीठी यादें आंसुओं से बह रहीं थी। साफ़िया इन आंसुओं का वो क़तरा थी जिसे लालू कभी अपनी आंखों से बह नहीं पाया।बारवें दर्ज़े तक साथ में पढ़ते हुए दिन कब गुज़रे थे? पता ही नहीं चला। मग़र जबसे साफ़िया आगे की पढ़ाई के लिये शहर गयी है,हर पल बोझ सा जिया है लालू ने। लालू को बस उसकी आख़िरी कही बात याद रहती थी,
"लालू में लौटकर जल्दी ही आऊँगी.. फिर हम दोनों साथ में लुका-छिपी खेलेंगें।"
लालू अकेले ही इस बात को याद कर हंसता और जब ग़म बढ़ जाता रोने लगता। लालू ख़ुश न रहता तो साबिर को खुशी कैसे सुहाती? साबिर ने शादी की,बच्चे हुये..पर जो खुशी लालू को वो देना चाहता था,शायद आज वो उसे देने में कामयाब हो पायेगा।
"ए नौटंकी! चल अब वरना सब गुड़ गोबर हो जायेगा यहीं"
साबिर ने संभलते हुये लालू के आँसूं पोंछे। लालू अब बहु कुछ सहम हुआ सा था।
"साबिर! यार क्या नवाबों के मोहल्ले इतनी रात गये जाना ठीक रहेगा?
"अमा यार लालू खामखाँ घबरा रहा है।इंसान ही हैं,चाट थोड़े ही जायेंगे,और फिर कह देंगे कि हमारी बस्ती से,आपकी बस्ती में चाँद का दीद जल्दी होता है,बस तू चल अब घबरा मत"
"मग़र... यार..."
"अब ये अगर-मग़र बाद में करना,चल पहले"
दोनों अब नवाबों के मोहल्ले में दाख़िल हो चुके थे। साफ़िया के मक़ान के आगे बने चबूतरे पर जमात लगी हुई थी।सब चाँद के इंतज़ार में बैठे अपने-अपने अंदाज़, राज़,अल्फ़ाज़ बयान किये जा रहे थे।बुज़ुर्गों की भीड़ से अलग जवान लोगों की टोलियां अपनी लफ़्फ़ाज़ी में मशरूफ़ थीं। साबिर ने ज़ाकिर ड्राइवर की कमीज का कोना खींचा। उसने मुड़कर देखा,भौचक देखता ही रह गया,हड़बड़ाहट में बोला,
"अमा मियाँ साबिर तुम ?इस वक़्त? मरवाओगे क्या? घर में तसल्ली न हुई तुमसे।
"अमा ज़ाकिर भाईजान! न जाने कितनी ईद तसल्ली करते-करते गुज़र गयीं इस मखदूम लालू की,और अब इसकी तसल्ली इसके सामने है,तो इसकी तसल्ली को भी तस्सली मिल जायेगी।तुम बस हमारे खड़े होने का इंतज़ाम ऐसी जगह करो कि इस मुफ़लिस को अपने चाँद का दीदार हो जाये,दुआ मिलेगी।"
"अमा मियाँ सठिया गये हो तुम! मालिक को पता चल गया तो ख़ाल खिंचवा देंगे हमारी और नौकरी जायेगी सो मुनाफे में...न हमसे न होगा.."
"अबे मान भी जा ज़ाकिर! अल्लाह कसम तुझ पर उठने वाली आंखे निकाल लूंगा,बस एक बार मान जा यार.."
ज़ाकिर नज़रे झुकाये "न-न"किये जा रहा था। लाख कोशिशों के बाद भी तैयार न हुआ।
"चल ठीक है! तू मत बता..हमें जहाँ से इसका चाँद नज़र आयेगा वहीं जम जायेंगे.. जान थोड़े ही ले लेगा कोई..चल रे लालू"
साबिर को तैस आ गया। लालू के हाँथ खींचकर उसे आगे की ओर चलने के लिए धकेेल दिया। ज़ाकिर ने लालू के हाँथ पकड़ लिया,"सुन! तेरी मोहब्बत अपनी जगह है और ज़िन्दगी अपनी जगह,सोंच ले"
"ज़ाकिर भाई, अगर कुछ सोंचना ही होता तो दिमाग चलता न,लेकिन दिमाग ने आज दिल से हार मान ली है और दिल साल रोज़ा रख के बैठा है,जब तक चाँद नहीं दिखाई देता रगों को खून की इफ्तारी न मिलेगी।"
लालू फिर सेे छलक पड़ा।
"अच्छा-अच्छा ठीक है,जाओ! उधर नीम के चबूतरे के पास खड़े हो जाओ,साफ़िया मेडम सबसे ऊपर वाली बालकनी में खड़ी होंगी"
ज़ाकिर पिघल गया।दोनों बढ़े ही थे कि उसने फिर रोका,
"और सुनो!कोई पूछे तो कहना ज़ाकिर के साथ आये हैं"
"शुक्रिया ज़ाकिर भाई"
साबिर के कंधे पर हाँथ रखे लालू चल तो रहा था मगर उसकी आँखें अपने चाँद को ढूंढ रही थीं।दोनों चबूतरे के पास पहुंचे।ये लफ़्फ़ाज़ों की जमात थी।अचानक पता नहीं क्या हुआ कि,लफ़्फ़ाज़ों में हलचल मच गई।इस भीड़ की हिस्से में दो दोस्त ख़ुद को छिपाने में मशरूफ़ थे।इसी बीच कुछ बातें होने लगीं।
"अबे जानता है,नवाब साहब की बहन शहर से लौट आयी है,सुना है बहुत पढ़ी-लिखीं हैं"
"अबे ज़ाहिल!पढ़ने ही तो गयीं थी वो शहर को,लेकिन एक बात और जानते हो शहर में रह के भी नये ज़माने के रंग नहीं चढ़े उनपे। सुना है,आज भी ख़ानदानी सलवार सूट ही पहनती है"
"अमा ये सब छोड़ों मियाँ,सबसे बड़ी बात ये है कि वो जितनी प्यारी लगती थी अब उससे भी सौ गुना क्या हज़ार गुना और खूबसूरत हो गयी हैं,सच ही है। ऊपर वाले के रहम-ओ-करम का नतीज़ा है ये सब,जिसे परोसता है दोनों हाँथों से परोस देता है।"
मग़रिब की अज़ान के बाद से लगभग बीस मिनट होने को हैं,मग़र चाँद अभी तक नहीं दिखा,लोगों में बेचैनी बढ़ गयी।सबकी नज़रें आसमान में टिकी थी। इस दुनिया से दूर लालू की आंखें नवाब साहब की ऊपर वाली बालकनी को ताकते हुये अपने चाँद का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहीं थीं।पीली-गुलाबी बत्तियों से रौशन वो बालकनी लालू को रंगीन सितारों से सज़ा आसमान नज़र आया,बस कमी थी तो चाँद की।
"वो देखो चाँद निकल आया,मुबारक़ हो"
साफ़िया के बालकनी पर आते ही लालू ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया। सबकी नजरें उसकी तरफ मुड़ गयीं।साबिर सहम गया। ऐसे मुबारक़ मौक़े पर भला ऐसा भद्दा मज़ाक कौन बर्दाश्त करेगा? उसने लालू को डांटते हुये वक़्त की नज़ाकत अपने हिस्से की,"अबे सठिया गया है! चाँद निकलता तो सबको दिखता न! बड़े आये..मुंह बंद रख अपना..दो चमाट देंगे नहीं तो..."
बालकनी पर खड़ी साफ़िया ने आसमान की तरफ उंगली उठाई। उसके इशारे के साथ सबकी नजरों ने हमकदमी की और यक़ीनन चाँद निकल चुका था। बस,खुशियों का सिलसिला शुरू हुआ,लोग आपस में गले मिलने लगे।नवाब साहब ने सबको रुकने के लिये पहले ही कहलवा दिया था,और उन्होंने शहर से लाये हुये खजूर भीड़ में बंटवाने शुरू कर दिये।
इधर लालू इस सोंच में था कि "साफ़िया तो उजाले में थी सो दिख गयी पर उसे ये कैसे पता चले कि मैं भी यहां हूँ?"
साबिर ने उसके चेहरे की तरफ़ देखा।उसके कुछ कहने से पहले ही बोल पड़ा,"क्या सोंच रहा है? अबे ये सोंचने का वक़्त नहीं है,कुछ करते हैं ताकि तेरा पैग़ाम उस तक पहुंच जाये"
"मग़र वो कैसे चचाजान?"
"अरे तू देखते जा मेरे बच्चे!जैसा मैं बोलता हूं करते जा"
लालू ने मंजूरी से सिर हिलाया। साबिर ने उसे ज़ोर का धक्का मारा अब वे दोनों बाहर लगी पीले बल्ब की बत्ती के उजाले में थे।दोनों आपस में एक-दूसरे पर चिल्लाने लगे।
"अबे मैं कह रहा हूँ न तो मानता क्यों नहीं? ऐसा नहीं हैं"
"अबे तुझे मालूम भी है कुछ! ऐसा ही है पक्का.."
बहस बढ़ती गयी। देखते-देखते बात मार-पीट तक उतर आई।सारी भीड़ इकट्ठी हो गयी।ज़ाकिर मियाँ को भी ख़ुद का हश्र सोंच कर पसीने आ रहे थे।"नहीं है,है" ही सुनाई दे रहा था बस। किसी बुज़ुर्ग ने टोंकते हुये कहा,
"आख़िर बात क्या है?क्यों इस मुबारक़ मौके पर इस क़दर लड़ रहे हो?"
एक दूसरे का गलेबान छोड़ कर दोनों दूर हो गये।साबिर बोला,
"अरे चाचा! इस पगलेट से मैंने पूछा कि चाँद देर से क्यों निकला? तो जानते हैं क्या बोला? कहता है चाँद भी किसी चाँद के दीदार के इंतज़ार में था। बेअक्ल,बैलबुद्धि..."
सब खिलखिलाकर हंस पड़े।बालकनी पर खड़ी साफ़िया मुस्करा रही थी। दोनों यारों की मेहनत बेकार न गयी।लालू से पूछा गया,
"तो इसमें लड़ने की क्या बात थी?"
लालू बोला,
"यही तो..! ये ज़नाब कहते हैं चाँद भला किसका दीदार करेगा? वो तो ख़ुद चाँद है,मैं इन्हें यही समझा रहा था कि इश्क़ चाँद को भी किसी दूसरे चाँद से दिल लगाने को मजबूर कर देता है,भले ही चाँद ने सिर्फ़ किसी तारे से ही इश्क़ कर लिया हो मग़र उस चाँद के लिये उसका महबूब उससे भी बढ़कर है।"
जवानों ने खूब हो हल्ला मचाया मग़र कुछ बूढ़े खीझ गये। उनमें कुछ बूढ़े थे,जो कभी जवान रहे थे उन्हें भी ये बात अच्छी लगी।उन्होंने बात को कुछ यूं रफ़ा-दफ़ा किया,
"चल ठीक है मजनू की औलाद! अब घर जाओ अपने,इश्क़ न सिखाओ हमें,इश्क़ हमारे भी लहू में था,आज भी है,चलो जाओ रे!"
दोनों घर की ओर चल दिये। लालू के क़दम ही न बढ़ रहे थे। उसके लौटने से पहले ही साफ़िया बालकनी से जा चुकी थी,और ये उसे नाग़वार गुजरा। दोनों टहलते हुये चौराहे तक आ गये। खामोशी कस्बे को आगोश में समेटे थी।लालू बोल पड़ा,
"अमा साबिर!"
"हां बोल!"
"कितना अच्छा होता जो साफ़िया साथ होती?"
"हां बिल्कुल...ख़्वाब अच्छा है!"
"नहीं में हक़ीक़त की बात कर रहा हूँ कि, काश! हम आपस में ढेर सारी बातें कर पाते। काश! उससे शहर में बिताए गये दिनों के किस्से सुनता और उसके न होने पर गांव में बिताये गये ख़ुद के बुरे दिनों की दास्तान सुना पाता उसे..काश!"
इंसान की ख्वाहिशें कभी नहीं मरतीं। जितना हासिल हो जाता है और भूख बढ़ जाती है।लालू ने लंबी सांस लेते हुये अफ़सोस का"काश" ज़िगर के किसी कोने में बिठा लिया।
"बस कर भाई! तू ये काश-काश के चक्कर में मुझे सांस नहीं लेने दे रहा।"
साबिर थका महसूस करने लगा। चौराहे के ठीक बीच में बैठ गए दोनों। चाँद आसमान चढ़ता जा रहा था और लालू ख्वाब बुनते जा रहा था।अचानक दो परछाइयां इन्हें अपनी ओर बढ़ती दिखाई दी।
"चाँद का दीद मुबारक़ हो"
लगभग दस ग़ज़ दूर से आयी आवाज़ के साथ दोनों परछाइयां इन दोनों के करीब आ रही थीं। साबिर काँपती आवाज़ में जवाब देते हुये उठ खड़ा हुआ,
"आपको भी! मगर माफ करियेगा,हमने आपको पहचाना नहीं"
"कैसे पहचानेंगें चचाजान? अरसा बीत गया आवाज़ सुने हुये"
साफ़िया,ज़ाकिर की बेग़म के साथ चौराहे तक लालू से मिलने आ पहुंची थी।साबिर और लालू को तो यक़ीन ही नहीं हो रहा था। लालू ने ऊपर वाले का शुक्र अदा किया,
"या मेरे मौला! तू सबकी फरियाद सुनता था ये तो मैं जानता था मग़र इतनी जल्दी मेरी दुआ क़ुबूल होगी मैंने ख़्वाब में भी न सोंचा था।"
"अबे धोखे की तरह खड़ा ही रहेगा,अपने ख्वाब का बढ़कर इस्तक़बाल भी करेगा"
साबिर ने लालू को आगे बढ़ने के लिये कहा और ख़ुद चौकसी पर खड़ा हो गया।
साफ़िया और लालू उस चाँद की हल्की रौशनी में एक दूसरे को ताक रहे थे। आंखों से इंतज़ार झरकर सीने तक आ पहुंचा। दो आवाज़े आयीं...
" सफ्फू....मेरी सफ्फू..तू आ गयी..चल दोनों लुका-छिपी खेलते हैं"
"हाँ मेरे लल्लू...बहुत दिन हुये एक-दूसरे में ग़ुम हुए"
दो चाँद गले मिल गये, जो अब तक अधूरे थे पूरे हो गये। दो वक़्त एक जगह आकर ठहर गये। दो गुज़रे हुये कलों ने आज के सामने घुटने टेक दिये। दो चाँद अब ईद मना रहे हैं ये कहते हुये....
"मेरे चाँद, मुझे तेरा दीद मुबारक़,दुनिया तुझे तेरी ईद मुबारक़"
"हां.. हां.. ठीक है...अब न जा कोई बात नहीं! मेरे कहने से क्यों जायेगा? जाता तो तू ख़ूब था,चाँद का दीद भी करता था और चांद की रात हमेशा देर से लौटता भी था।अब न जाने क्या हुआ? लेकिन ये जान ले मेरे बच्चे! मैं तेरी अम्मा हूं,सब मालूम था मुझे!तब भी,और आज भी,सिर्फ़ आंखें नहीं रहीं तो क्या?अपने लाल का दर्द तो महसूस ही होता है न"
लालू छलक उठा। मज़ाकिया अंदाज़ में ख़ुद को ख़ुद में कैद कर अम्मा को समझाने लगा,
"अम्मा!!! ये तू क्या बफले जा रही है? तब दिन कुछ और थे,अब वो नहीं रहे। बच्चा था तब मैं अम्मा। अच्छा मुँह खोल दवाई पी ले।"
सर में हाँथ लगाकर उठाया और चम्मच में घोली दवाई अम्मा को पिलाकर फिर से लिटा दिया।
"चल अब सो जा अम्मा!कल ईद है मुझे बड़ी मेहनत करनी है। सारे मेहमान इकट्ठे होंगें,उनके इस्तक़बाल का इंतज़ाम भी तो करना है न।"
"हां में सो जाऊंगी,पर तू एक बार चाँद..."
अम्मा का दिल नहीं मान रहा था,पर लालू बीच में टोंकते हुये बोला,
"क्या अम्मा! अब तुम सो जाओ,चाँद जल्द ही आने वाला है,पता चल जायेगा।"
"जैसी तेरी मर्ज़ी...वैसे अब मेरी आँखें तू ही है न बेटा! सो कह दिया..नहीं जाना चाहता,तो मत जा.."
हमेशा से बन्द आंखों को अम्मा पलकों से ढकते हुये,चारपाई की पाटी पकड़ लेट गयी। लालू बर्तन समेटने लगा।कुछ सफाई करनी थी सो झाड़ू उठाया ही था कि साबिर आ धमका।बड़ी हड़बड़ाहट में घर के अंदर शरीक हुआ।
"अबे लालू! कहाँ हो बे?"
"हां आता हूँ रे! ठहर ज़रा"
हाँथ में झाड़ू लिये लालू सामने आया,
"क्या हुआ? क्यों गला फाड़ रहा है? चाँद तेरी छत पे गिर पड़ा क्या जो इत्ता ख़ुश हुये जा रहा है"
"अरे नहीं रे! फ़िज़ूल का बक़वास मत कर। चल मेरे साथ अभी"
"पर कहाँ भाई"
"अरे तू चल तो सही फिर बताऊंगा"
"रहने दे,मुझे कहीं नहीं जाना यार! तू जा न,अम्मा भी बोल-बोल के थक गई,वैसे भी मुझे बहुत काम है,तू जा रे"
"अरे काम फिर कर लियो,अभी चल तो सही तुझे दिखाना है कुछ"
"बतायेगा भी कुछ कि सिर्फ भड़भड़ाता ही रहेगा,ऐसा क्या दिखायेगा तू मुझे?"
"वो क्या है कि,उसे मैं अपने लफ़्ज़ों से बयाँ नही कर सकता,लेकिन इतना पक्का है मेरे जाँ नशीं!तू दीद कर उछल पड़ेगा"
"अच्छा!!!! अगर फ़िज़ूल कुछ हुआ तो?"
"अल्लाह क़सम! जान ले लेना मेरी जान! तू चल तो सही"
साबिर ने झाड़ू हाँथ से छीनकर आंगन में हीं फेंक दिया।हाँथ पकड़ कर साथ चल दिये दोनों।
"हाँथ छोड़ मेरा! अब मैं बच्चा नहीं रहा रे"
लालू ने साबिर का हाँथ झटकते हुये कहा। साबिर रिश्ते में लालू का चचाजान लगता था। बचपन में अक्सर लालू का हाँथ पकड़कर चलने की आदत थी साबिर की,सो आदत न गयी अब तक।उम्र में कोई खासा अंतर न था यही कोई दो बरस ही बड़ा होगा साबिर लालू से। दोनो की ख़ास बात ये थी कि दोनों ही माह-ए-रमज़ान के मुबारक़ वक़्त में दुनिया मे तशरीफ़ लाये थे।लालू चौथे रोज़े के दिन का था और साबिर पंद्रहवें रोज़े के दिन का। यारी-दोस्ती सारी कहावतें बौनी हैं इनके।ये रिश्तेदार कम यार ज़्यादा हैं।
"अच्छा बेटे! अब ये तू मुझे बतायेगा? अरे मुझे तेरे अलावा भी कुछ याद है, तू जिस दिन पखाना अकेले जाना सीखा था,उस दिन से आजतक,सब जानता हूँ मैं,अबे! चचा हूँ तुम्हारा भूलो न"
साबिर कभी-कभी मसखरी कर देता था,चचा होने के नाम पर। दोनो मुस्करा उठे। चौराहे से दायीं ओर मुड़ते ही लालू सहम गया।
"अरे मेरे चचा! किधर जा रहे हो ज़नाब? जानते हैं न आप कि वो किसका मोहल्ला है? जीते जी ज़न्नत दिखाओगे आप,अल्लाह क़सम"
साबिर मुस्कराया,"अरे जानता हूँ न मेरे बच्चे! इधर मेरे लालू का चाँद रहता है,जिसका दीदार उसके लिए ज़न्नत से भी बढ़कर है,और ईद मनाने के लिये चाँद का दीद ज़रूरी होता है न जाँ नशीं!फिर किस बात का डर? चाँद का दीद करना कोई गुनाह तो नहीं है न! कल पूरी दुनिया ईद मनायेगी तो क्या मेरा लालू नहीं मनायेगा?"
अचानक लालू की आंखों में आँसूं आ गये। उसका कल उसकी पीठ से उधड़कर उसकी हथेलियों में आ गिरा।
"सच कह रहे हो न चचा?"
"नहीं तो! तुझे रुलाने से मुझे ख़ुशी मिलेगी न पगले! यकीन नहीं होता तो चल"
"क्या सच में.....?"
लालू की ख़ुशी आंखों में यूं छलकी की ज़ुबान और गले ने अपना दम तोड़ दिया।
"हां रे! साफ़िया शहर से लौट आयी है। उसके घर पे वो अपना ज़ाकिर है न अरे वो ड्राइवर ज़ाकिर,उसी ने घर आते ही बताया..जैसे ही पता चला में दौड़कर तेरे पास आ गया..अब चल देर मत कर,वरना चाँद निकल आया तो तेरा चाँद ग़ुम हो जायेगा.. चल"
लालू,साबिर के गले लिपट पड़ा।दोनों की आंखें नम थी। बचपन से अब तक के वो हसीन दिनों की खट्टी-मीठी यादें आंसुओं से बह रहीं थी। साफ़िया इन आंसुओं का वो क़तरा थी जिसे लालू कभी अपनी आंखों से बह नहीं पाया।बारवें दर्ज़े तक साथ में पढ़ते हुए दिन कब गुज़रे थे? पता ही नहीं चला। मग़र जबसे साफ़िया आगे की पढ़ाई के लिये शहर गयी है,हर पल बोझ सा जिया है लालू ने। लालू को बस उसकी आख़िरी कही बात याद रहती थी,
"लालू में लौटकर जल्दी ही आऊँगी.. फिर हम दोनों साथ में लुका-छिपी खेलेंगें।"
लालू अकेले ही इस बात को याद कर हंसता और जब ग़म बढ़ जाता रोने लगता। लालू ख़ुश न रहता तो साबिर को खुशी कैसे सुहाती? साबिर ने शादी की,बच्चे हुये..पर जो खुशी लालू को वो देना चाहता था,शायद आज वो उसे देने में कामयाब हो पायेगा।
"ए नौटंकी! चल अब वरना सब गुड़ गोबर हो जायेगा यहीं"
साबिर ने संभलते हुये लालू के आँसूं पोंछे। लालू अब बहु कुछ सहम हुआ सा था।
"साबिर! यार क्या नवाबों के मोहल्ले इतनी रात गये जाना ठीक रहेगा?
"अमा यार लालू खामखाँ घबरा रहा है।इंसान ही हैं,चाट थोड़े ही जायेंगे,और फिर कह देंगे कि हमारी बस्ती से,आपकी बस्ती में चाँद का दीद जल्दी होता है,बस तू चल अब घबरा मत"
"मग़र... यार..."
"अब ये अगर-मग़र बाद में करना,चल पहले"
दोनों अब नवाबों के मोहल्ले में दाख़िल हो चुके थे। साफ़िया के मक़ान के आगे बने चबूतरे पर जमात लगी हुई थी।सब चाँद के इंतज़ार में बैठे अपने-अपने अंदाज़, राज़,अल्फ़ाज़ बयान किये जा रहे थे।बुज़ुर्गों की भीड़ से अलग जवान लोगों की टोलियां अपनी लफ़्फ़ाज़ी में मशरूफ़ थीं। साबिर ने ज़ाकिर ड्राइवर की कमीज का कोना खींचा। उसने मुड़कर देखा,भौचक देखता ही रह गया,हड़बड़ाहट में बोला,
"अमा मियाँ साबिर तुम ?इस वक़्त? मरवाओगे क्या? घर में तसल्ली न हुई तुमसे।
"अमा ज़ाकिर भाईजान! न जाने कितनी ईद तसल्ली करते-करते गुज़र गयीं इस मखदूम लालू की,और अब इसकी तसल्ली इसके सामने है,तो इसकी तसल्ली को भी तस्सली मिल जायेगी।तुम बस हमारे खड़े होने का इंतज़ाम ऐसी जगह करो कि इस मुफ़लिस को अपने चाँद का दीदार हो जाये,दुआ मिलेगी।"
"अमा मियाँ सठिया गये हो तुम! मालिक को पता चल गया तो ख़ाल खिंचवा देंगे हमारी और नौकरी जायेगी सो मुनाफे में...न हमसे न होगा.."
"अबे मान भी जा ज़ाकिर! अल्लाह कसम तुझ पर उठने वाली आंखे निकाल लूंगा,बस एक बार मान जा यार.."
ज़ाकिर नज़रे झुकाये "न-न"किये जा रहा था। लाख कोशिशों के बाद भी तैयार न हुआ।
"चल ठीक है! तू मत बता..हमें जहाँ से इसका चाँद नज़र आयेगा वहीं जम जायेंगे.. जान थोड़े ही ले लेगा कोई..चल रे लालू"
साबिर को तैस आ गया। लालू के हाँथ खींचकर उसे आगे की ओर चलने के लिए धकेेल दिया। ज़ाकिर ने लालू के हाँथ पकड़ लिया,"सुन! तेरी मोहब्बत अपनी जगह है और ज़िन्दगी अपनी जगह,सोंच ले"
"ज़ाकिर भाई, अगर कुछ सोंचना ही होता तो दिमाग चलता न,लेकिन दिमाग ने आज दिल से हार मान ली है और दिल साल रोज़ा रख के बैठा है,जब तक चाँद नहीं दिखाई देता रगों को खून की इफ्तारी न मिलेगी।"
लालू फिर सेे छलक पड़ा।
"अच्छा-अच्छा ठीक है,जाओ! उधर नीम के चबूतरे के पास खड़े हो जाओ,साफ़िया मेडम सबसे ऊपर वाली बालकनी में खड़ी होंगी"
ज़ाकिर पिघल गया।दोनों बढ़े ही थे कि उसने फिर रोका,
"और सुनो!कोई पूछे तो कहना ज़ाकिर के साथ आये हैं"
"शुक्रिया ज़ाकिर भाई"
साबिर के कंधे पर हाँथ रखे लालू चल तो रहा था मगर उसकी आँखें अपने चाँद को ढूंढ रही थीं।दोनों चबूतरे के पास पहुंचे।ये लफ़्फ़ाज़ों की जमात थी।अचानक पता नहीं क्या हुआ कि,लफ़्फ़ाज़ों में हलचल मच गई।इस भीड़ की हिस्से में दो दोस्त ख़ुद को छिपाने में मशरूफ़ थे।इसी बीच कुछ बातें होने लगीं।
"अबे जानता है,नवाब साहब की बहन शहर से लौट आयी है,सुना है बहुत पढ़ी-लिखीं हैं"
"अबे ज़ाहिल!पढ़ने ही तो गयीं थी वो शहर को,लेकिन एक बात और जानते हो शहर में रह के भी नये ज़माने के रंग नहीं चढ़े उनपे। सुना है,आज भी ख़ानदानी सलवार सूट ही पहनती है"
"अमा ये सब छोड़ों मियाँ,सबसे बड़ी बात ये है कि वो जितनी प्यारी लगती थी अब उससे भी सौ गुना क्या हज़ार गुना और खूबसूरत हो गयी हैं,सच ही है। ऊपर वाले के रहम-ओ-करम का नतीज़ा है ये सब,जिसे परोसता है दोनों हाँथों से परोस देता है।"
मग़रिब की अज़ान के बाद से लगभग बीस मिनट होने को हैं,मग़र चाँद अभी तक नहीं दिखा,लोगों में बेचैनी बढ़ गयी।सबकी नज़रें आसमान में टिकी थी। इस दुनिया से दूर लालू की आंखें नवाब साहब की ऊपर वाली बालकनी को ताकते हुये अपने चाँद का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहीं थीं।पीली-गुलाबी बत्तियों से रौशन वो बालकनी लालू को रंगीन सितारों से सज़ा आसमान नज़र आया,बस कमी थी तो चाँद की।
"वो देखो चाँद निकल आया,मुबारक़ हो"
साफ़िया के बालकनी पर आते ही लालू ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया। सबकी नजरें उसकी तरफ मुड़ गयीं।साबिर सहम गया। ऐसे मुबारक़ मौक़े पर भला ऐसा भद्दा मज़ाक कौन बर्दाश्त करेगा? उसने लालू को डांटते हुये वक़्त की नज़ाकत अपने हिस्से की,"अबे सठिया गया है! चाँद निकलता तो सबको दिखता न! बड़े आये..मुंह बंद रख अपना..दो चमाट देंगे नहीं तो..."
बालकनी पर खड़ी साफ़िया ने आसमान की तरफ उंगली उठाई। उसके इशारे के साथ सबकी नजरों ने हमकदमी की और यक़ीनन चाँद निकल चुका था। बस,खुशियों का सिलसिला शुरू हुआ,लोग आपस में गले मिलने लगे।नवाब साहब ने सबको रुकने के लिये पहले ही कहलवा दिया था,और उन्होंने शहर से लाये हुये खजूर भीड़ में बंटवाने शुरू कर दिये।
इधर लालू इस सोंच में था कि "साफ़िया तो उजाले में थी सो दिख गयी पर उसे ये कैसे पता चले कि मैं भी यहां हूँ?"
साबिर ने उसके चेहरे की तरफ़ देखा।उसके कुछ कहने से पहले ही बोल पड़ा,"क्या सोंच रहा है? अबे ये सोंचने का वक़्त नहीं है,कुछ करते हैं ताकि तेरा पैग़ाम उस तक पहुंच जाये"
"मग़र वो कैसे चचाजान?"
"अरे तू देखते जा मेरे बच्चे!जैसा मैं बोलता हूं करते जा"
लालू ने मंजूरी से सिर हिलाया। साबिर ने उसे ज़ोर का धक्का मारा अब वे दोनों बाहर लगी पीले बल्ब की बत्ती के उजाले में थे।दोनों आपस में एक-दूसरे पर चिल्लाने लगे।
"अबे मैं कह रहा हूँ न तो मानता क्यों नहीं? ऐसा नहीं हैं"
"अबे तुझे मालूम भी है कुछ! ऐसा ही है पक्का.."
बहस बढ़ती गयी। देखते-देखते बात मार-पीट तक उतर आई।सारी भीड़ इकट्ठी हो गयी।ज़ाकिर मियाँ को भी ख़ुद का हश्र सोंच कर पसीने आ रहे थे।"नहीं है,है" ही सुनाई दे रहा था बस। किसी बुज़ुर्ग ने टोंकते हुये कहा,
"आख़िर बात क्या है?क्यों इस मुबारक़ मौके पर इस क़दर लड़ रहे हो?"
एक दूसरे का गलेबान छोड़ कर दोनों दूर हो गये।साबिर बोला,
"अरे चाचा! इस पगलेट से मैंने पूछा कि चाँद देर से क्यों निकला? तो जानते हैं क्या बोला? कहता है चाँद भी किसी चाँद के दीदार के इंतज़ार में था। बेअक्ल,बैलबुद्धि..."
सब खिलखिलाकर हंस पड़े।बालकनी पर खड़ी साफ़िया मुस्करा रही थी। दोनों यारों की मेहनत बेकार न गयी।लालू से पूछा गया,
"तो इसमें लड़ने की क्या बात थी?"
लालू बोला,
"यही तो..! ये ज़नाब कहते हैं चाँद भला किसका दीदार करेगा? वो तो ख़ुद चाँद है,मैं इन्हें यही समझा रहा था कि इश्क़ चाँद को भी किसी दूसरे चाँद से दिल लगाने को मजबूर कर देता है,भले ही चाँद ने सिर्फ़ किसी तारे से ही इश्क़ कर लिया हो मग़र उस चाँद के लिये उसका महबूब उससे भी बढ़कर है।"
जवानों ने खूब हो हल्ला मचाया मग़र कुछ बूढ़े खीझ गये। उनमें कुछ बूढ़े थे,जो कभी जवान रहे थे उन्हें भी ये बात अच्छी लगी।उन्होंने बात को कुछ यूं रफ़ा-दफ़ा किया,
"चल ठीक है मजनू की औलाद! अब घर जाओ अपने,इश्क़ न सिखाओ हमें,इश्क़ हमारे भी लहू में था,आज भी है,चलो जाओ रे!"
दोनों घर की ओर चल दिये। लालू के क़दम ही न बढ़ रहे थे। उसके लौटने से पहले ही साफ़िया बालकनी से जा चुकी थी,और ये उसे नाग़वार गुजरा। दोनों टहलते हुये चौराहे तक आ गये। खामोशी कस्बे को आगोश में समेटे थी।लालू बोल पड़ा,
"अमा साबिर!"
"हां बोल!"
"कितना अच्छा होता जो साफ़िया साथ होती?"
"हां बिल्कुल...ख़्वाब अच्छा है!"
"नहीं में हक़ीक़त की बात कर रहा हूँ कि, काश! हम आपस में ढेर सारी बातें कर पाते। काश! उससे शहर में बिताए गये दिनों के किस्से सुनता और उसके न होने पर गांव में बिताये गये ख़ुद के बुरे दिनों की दास्तान सुना पाता उसे..काश!"
इंसान की ख्वाहिशें कभी नहीं मरतीं। जितना हासिल हो जाता है और भूख बढ़ जाती है।लालू ने लंबी सांस लेते हुये अफ़सोस का"काश" ज़िगर के किसी कोने में बिठा लिया।
"बस कर भाई! तू ये काश-काश के चक्कर में मुझे सांस नहीं लेने दे रहा।"
साबिर थका महसूस करने लगा। चौराहे के ठीक बीच में बैठ गए दोनों। चाँद आसमान चढ़ता जा रहा था और लालू ख्वाब बुनते जा रहा था।अचानक दो परछाइयां इन्हें अपनी ओर बढ़ती दिखाई दी।
"चाँद का दीद मुबारक़ हो"
लगभग दस ग़ज़ दूर से आयी आवाज़ के साथ दोनों परछाइयां इन दोनों के करीब आ रही थीं। साबिर काँपती आवाज़ में जवाब देते हुये उठ खड़ा हुआ,
"आपको भी! मगर माफ करियेगा,हमने आपको पहचाना नहीं"
"कैसे पहचानेंगें चचाजान? अरसा बीत गया आवाज़ सुने हुये"
साफ़िया,ज़ाकिर की बेग़म के साथ चौराहे तक लालू से मिलने आ पहुंची थी।साबिर और लालू को तो यक़ीन ही नहीं हो रहा था। लालू ने ऊपर वाले का शुक्र अदा किया,
"या मेरे मौला! तू सबकी फरियाद सुनता था ये तो मैं जानता था मग़र इतनी जल्दी मेरी दुआ क़ुबूल होगी मैंने ख़्वाब में भी न सोंचा था।"
"अबे धोखे की तरह खड़ा ही रहेगा,अपने ख्वाब का बढ़कर इस्तक़बाल भी करेगा"
साबिर ने लालू को आगे बढ़ने के लिये कहा और ख़ुद चौकसी पर खड़ा हो गया।
साफ़िया और लालू उस चाँद की हल्की रौशनी में एक दूसरे को ताक रहे थे। आंखों से इंतज़ार झरकर सीने तक आ पहुंचा। दो आवाज़े आयीं...
" सफ्फू....मेरी सफ्फू..तू आ गयी..चल दोनों लुका-छिपी खेलते हैं"
"हाँ मेरे लल्लू...बहुत दिन हुये एक-दूसरे में ग़ुम हुए"
दो चाँद गले मिल गये, जो अब तक अधूरे थे पूरे हो गये। दो वक़्त एक जगह आकर ठहर गये। दो गुज़रे हुये कलों ने आज के सामने घुटने टेक दिये। दो चाँद अब ईद मना रहे हैं ये कहते हुये....
"मेरे चाँद, मुझे तेरा दीद मुबारक़,दुनिया तुझे तेरी ईद मुबारक़"
वाह भाई! बहुत सुंदर ... शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत आभार मोहित भाई...स्नेह मिलता रहे यूँ ही..
DeleteNyc bhai wow fantastic
ReplyDeleteक्या कहने प्रिय अनुज। तुम समंदर जैसे सुशांत किन्तु अथाह गहराई समेटे हुए हो। एक और बेहतरीन सृजन के लिए बधाई और शुभ कामनाएँ!��������
ReplyDeleteसादर प्रणाम सहित आभार....आपके स्नेह और आशीर्वाद हेतु मन प्रतीक्षारत था...पुनः आभार
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